Saturday, March 6, 2010

वह अपनी पीठ की और भाग रहा है........

समय के साथ
दौड़ने का अभिनय करते हुए
वह अपनी पीठ की ओर भाग रहा है

वह ऐसा क्यों कर रहा है
जानते हुए, कि
पीछे जो छूट गया .......छूट गया

लेकिन अचरज कि बात यह .....
कि, समय के विपरीत चलते हुए
उसका चेहरा..... अभी भी समय की दिशा में है

ऋतुओं के आगमन पर वह बदलता है परिधान
लेकिन.........वसंत में
वह कभी वसंत हुआ ही नहीं ..

चुप्पी के गलियारों में
अपने होने के अर्थ तलाशता हुआ
वह लगाता है चक्कर लगातार
भटकाव से वह थकता है
बहार से कम.........भीतर से ज्यादा
उसकी यह थकान
जितनी उसके पास जगह है
उससे कही ज्यादा है
तब उसे अपना होना कौतुहल के अलावा
कुछ भी अधिक नहीं लगता ...

वह दिन की और देखता भी नहीं
कि, वह उसे क्या दे रहा है
उसे कोई फर्क नहीं पडता
कि चुप गलियारे के बाहर भी
कोई आवाज़ गुजरती है..?
धुप है या ...नहीं ?
उसे कोई फर्क नहीं पडता...

वह अपनी तन्द्रा से
सपनों का दर्द लिए हुए
उनींदी सुबह कि तरह जागता है
अपने ही होने से
अपने को विवस्त्र करता हुआ ......
---कृष्णकांत निलोसे