Wednesday, September 29, 2010

अब कुछ नहीं बचा है

कभी - कभी
ऐसा भी होता है
जब ज़रूरी बात भी
रोज़-रोज़ के ढर्रे में पड़
बेज़रूरी हो जाती है
जैसे, रोज़ जीना
और मरना रोज़
खासकर धुंध में खोये समय में
तलाशना अपना होना
किसी मुकम्मिल जगह
सुरक्षा के लिए

सच तो यह है
अब कुछ नहीं बचा है
संशयातीत
यहाँ तक कि
भाषा भी संशय के बीच
करते हुए पैरवी समय की
पूर्ण विराम में
थम जाती है

आखिर इस अहेतु समय में
अपने लिए न सही
पांखी के लिए तो मांग सकते है
एक साफ सुथरा भरोसमंद आकाश
उड़ान के लिए


लंगड़ाता समय

चुप्पी.. ..
वह भी मध्य रात्री की
सन्नाटे की छाती में
ठुकी हुई एक कील ..... !

सलीब ......
अपने कंधे पर ढोता
लंगड़ाता समय .... !

मृत्यु .....
दिवस की चिता के धुएं पर
सुखाती अपने केश ..... !

सपनों में बार बार दिखना
यह किस बात का संकेत है ?

उस आदमी के लिए तो नहीं
जो बेंच पर बैठा एकांत में
अपने ही मुर्दा अतीत से
करता रहता है बात .... !



Friday, September 10, 2010

स्पर्श का अनसुना गान

स्पर्श की भाषा से परे
अलक्षित आह्लाद के चरम पर
आरूढ़
तुम्हारे होने में
डूबना चाहता हूँ
और...मैं डूबूँगा ज़रूर
स्वयं से अनावृत्त होते हुए
तुम्हारे होने में...

ढूँढूँगा...
विस्मृत स्मृतियों के आवर्तों में
आवृत्त
नक्षत्री आभा से दीप्त
तुम्हारे होने के अर्थ
चेतना की सीमा लाँघ
अनहद में

पाऊँगा तुम्हें...
हवा में रमी हुई
तुम्हारी पारिजात गंध को
आत्मलीन करता हुआ
स्वयं के सत्व में

सुनाऊँगा तुम्हें...
जागरण के उस अपरिमेय निमिष में
मौन की संगत में
तुम्हें बैठा
स्पर्श का अनसुना गान
आत्मा के इकतारे पर.....
...............................
तुम सुनोगी न...!

क्या तुम्हारा होना सिर्फ़ तसव्वुर है ?

मैंने...
तुम्हारी आखों में झाँका
देखा...
वहाँ समन्दर था
और थीं...
उत्ताल तरंगें
बाँहों में लपेटती हुई
सारा आकाश,
और...तुम
कश्ती सी थिरकती
यहाँ...वहाँ
मैंने तुम्हारी आँखों को चूमा
और...पी गया
सारा समन्दर और आकाश
क्या वह तसव्वुर था...
तुम कहीं नहीं?