Saturday, March 10, 2012

फटे ढोल की थाप पर



फटे ढोल की थाप पर


फटे ढोल की थप थप पर
हाथों में गुलाल भर
नाचा भी ...... गाया भी
लेकिन रंग न सका
बुझे हुए मन का वितान

हा...! हा ...! हा...! हा .. !
हा...! हा...! हा...! हा... !

हरा पीला लाल रंग
कितना ही उंडेलें हम
मस्ती में झूम- झूम ....
कितना ही थिरकें हम
लेकिन दुबके भयाक्रांत लोग
भूख से अधमरे लोग
अपनी उदासी टांग
नाचेंगे ... गायेंगे क्या ?

हा ...! हा ...! हा....!
हा....! हा.... ! हा...! हा ....!


मादल की थाप पर
दहशत जब नाच रही
नंगों की बांहें थाम
फाग हम मनाएं क्या ?

हा... ! हा...! हा...! हा...!
हा...! हा...! हा...!हा...!

प्रेम रंग भूल गए
राग द्वेष संग लियें
सभी बदरंग हुए
गीतगुनगुनाएं क्या ?
होली हम मनाएं क्या ?

हा...! हा ....! हा...! हा...!
हा....! हा....! हा....! हा.....!



Friday, December 31, 2010

स्रष्टि का मृत्युन्मुखी मौन तो नहीं ?


खिडकी के बाहर
एक और खिडकी
फिर कई कई खिड़कियाँ
खुलती लगातार
बाहर से भीतर की ओर
गहन अंधकार ..... मौन अंधकार
क्या भीतर कोई है ?

अपना होना ?
वह मृत है या फिर जीवित ?
वह नहीं जनता
कोई भी नहीं जनता ?


कोई नहीं जनता
भीतर जो है
वह पशु है ......
या ..... मनुष्य ?
या फिर कुछ भी नहीं
सिर्फ ..... अंधकार ...
अंधकार ..... घटाटोप अंधकार .... !!
क्या यह स्रष्टि का मृत्युन्मुखी मौन तो नहीं है ?

Thursday, December 30, 2010

धुंध !!


मौसम में धुंध है
और .... धुंध में वह
असंख्य धुन्धाये चेहरों के बीच
तलाशना अपना चेहरा

टकराता ..... डोलता
वह टटोलना चाहता है
अपनी पहचान
अपना होना

इस अंतहीन धुंध में फुसफुसाहट के बीच
आखिर वह है कहाँ ?
न तो वह जगह पहचान पा रहा है
और .... न ही लोग
जिनसे वह घिरा हुआ है

आखिर .... वो खोजे
तो ....... किसे ?
कहाँ .... और क्यों ?
जबकि उसके होने
और .... न होने के अर्थ ही
धुंधआ गए हों

वह आया था
एक नागरिक की तरह
अपने झोले में समेटे
प्रेमी का रागानुराग
सन्यासी का विराग
और .... विचारक का विचार लिए
ताकि वो बाँट सके लोगों के बीच
कुछ खुशियाँ
कुछ संवेदनाएं ......
और ...... कुछ दुआयें


लेकिन इस धुंध में
मोह भंग कुंठाओ के आलावा
उसे मिला क्या ?

आत्मा का पीड़ित निर्वासन ?
निष्ठां के विध्वंस का
भीष्मपितामही पश्चाताप ?
क्या यही ....?

Wednesday, September 29, 2010

अब कुछ नहीं बचा है

कभी - कभी
ऐसा भी होता है
जब ज़रूरी बात भी
रोज़-रोज़ के ढर्रे में पड़
बेज़रूरी हो जाती है
जैसे, रोज़ जीना
और मरना रोज़
खासकर धुंध में खोये समय में
तलाशना अपना होना
किसी मुकम्मिल जगह
सुरक्षा के लिए

सच तो यह है
अब कुछ नहीं बचा है
संशयातीत
यहाँ तक कि
भाषा भी संशय के बीच
करते हुए पैरवी समय की
पूर्ण विराम में
थम जाती है

आखिर इस अहेतु समय में
अपने लिए न सही
पांखी के लिए तो मांग सकते है
एक साफ सुथरा भरोसमंद आकाश
उड़ान के लिए