Wednesday, September 29, 2010

अब कुछ नहीं बचा है

कभी - कभी
ऐसा भी होता है
जब ज़रूरी बात भी
रोज़-रोज़ के ढर्रे में पड़
बेज़रूरी हो जाती है
जैसे, रोज़ जीना
और मरना रोज़
खासकर धुंध में खोये समय में
तलाशना अपना होना
किसी मुकम्मिल जगह
सुरक्षा के लिए

सच तो यह है
अब कुछ नहीं बचा है
संशयातीत
यहाँ तक कि
भाषा भी संशय के बीच
करते हुए पैरवी समय की
पूर्ण विराम में
थम जाती है

आखिर इस अहेतु समय में
अपने लिए न सही
पांखी के लिए तो मांग सकते है
एक साफ सुथरा भरोसमंद आकाश
उड़ान के लिए


2 comments:

  1. यह सही है कि इस अहेतु समय ने मनुष्य के सारे स्वप्न भी छीन लिये है और वह अपने लिए स्वप्न नही देखता . लेकिन उससे सपने देखने की ताकत नही छीन पाया है यह ।
    बहुत सुन्दर कविता है ।

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  2. सुन्दर कविता !

    जैसे, रोज़ जीना
    और मरना रोज़
    खासकर धुंध में खोये समय में
    तलाशना अपना होना !

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