Friday, September 10, 2010

स्पर्श का अनसुना गान

स्पर्श की भाषा से परे
अलक्षित आह्लाद के चरम पर
आरूढ़
तुम्हारे होने में
डूबना चाहता हूँ
और...मैं डूबूँगा ज़रूर
स्वयं से अनावृत्त होते हुए
तुम्हारे होने में...

ढूँढूँगा...
विस्मृत स्मृतियों के आवर्तों में
आवृत्त
नक्षत्री आभा से दीप्त
तुम्हारे होने के अर्थ
चेतना की सीमा लाँघ
अनहद में

पाऊँगा तुम्हें...
हवा में रमी हुई
तुम्हारी पारिजात गंध को
आत्मलीन करता हुआ
स्वयं के सत्व में

सुनाऊँगा तुम्हें...
जागरण के उस अपरिमेय निमिष में
मौन की संगत में
तुम्हें बैठा
स्पर्श का अनसुना गान
आत्मा के इकतारे पर.....
...............................
तुम सुनोगी न...!

2 comments:

  1. बहुत सुन्दर कविता !!
    बधाई दादा ।
    इनदिनों गजब कर रहे हो ।
    गति बनाए रखें

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  2. आदरणीय निलोसे जी , मुझे लगा था कि पहला कमेंट मैं करूंगा लेकिन पहला कमेंट जवाहर जिइ ने कर दिया है . मैं तो आपकी कविता आपकी आवाज़ में सुनता हूँ यह मेरा सौभाग्य है । यह वर्ड वेरिफ़िकेशन हटवा दीजिये इससे कमेन्ट पोस्ट करने में दिक्कत होती है ।

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