Wednesday, September 29, 2010

लंगड़ाता समय

चुप्पी.. ..
वह भी मध्य रात्री की
सन्नाटे की छाती में
ठुकी हुई एक कील ..... !

सलीब ......
अपने कंधे पर ढोता
लंगड़ाता समय .... !

मृत्यु .....
दिवस की चिता के धुएं पर
सुखाती अपने केश ..... !

सपनों में बार बार दिखना
यह किस बात का संकेत है ?

उस आदमी के लिए तो नहीं
जो बेंच पर बैठा एकांत में
अपने ही मुर्दा अतीत से
करता रहता है बात .... !



3 comments:

  1. चुप्पी सलीब और मृत्यु के यह बिम्ब अद्भुत हैं । यह कविता मन की बहुत सारी अनछुई परतों को खोलती है ।

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  2. आ. दादा , कविताओं के इलावा भी कुछ लिखें . कवितायेँ तो आपकी अदभुत हैं .

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  3. दनादन कविताएँ !!
    चश्मेबद्दूर !
    दादा ! आप इतना सुन्दर लिख रहे हो कि तमाम कवि भौचक हैं .
    कई लोगो ने पूछा है कि दादा
    इन दिनों कहाँ बैठ रहे हैं .

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